Friday, April 8, 2022

शक्तिपीठ मां छिन्नमस्तिका मंदिर

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दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ मां छिन्नमस्तिका मंदिर!!!!!!!!!!!



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झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर आस्था की धरोहर है। असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है।

रजरप्पा का यह सिद्धपीठ केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है। छिन्नमस्तिके मंदिर के अलावा यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल 7 मंदिर हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर में मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है।

दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के समीप ही मां छिन्नमस्तिके का मंदिर स्थित है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है।

मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण 6,000 वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। यह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है।

असम स्थित मां कामाख्या मंदिर को सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह भी संपन्न कराए जाते हैं।

मंदिर में प्रातःकाल 4 बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। इस भीड़ को संभालने और माता के दर्शन को सुलभ बनाने के लिए कुछ माह पूर्व पर्यटन विभाग द्वारा गाइडों की नियुक्ति की गई है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय पुलिस भी मदद करती है।

मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी-छोटी दुकानें हैं। आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पूर्व ही लौट जाते हैं। ठहरने की अच्छी सुविधा यहां अभी उपलब्ध नहीं हो पाई है।

मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं।

मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं। दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की 3 धाराएं बह रही हैं।

मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है। मंदिर के सामने बलि का स्थान है। बलि स्थान पर प्रतिदिन औसतन 100-200 बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर खुले आसमान के नीचे एक बरामदा है। इसके पश्चिम भाग में भंडारगृह है।

रुद्र भैरव मंदिर के नजदीक एक कुंड है। मंदिर की भित्ति 18 फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में एक अद्भुत पापनाशिनी कुंड है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करता है।

यहां मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। दामोदर के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था। इसे तांत्रिक घाट कहा जाता है, जो 20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। यहां से भक्त दामोदर में स्नान कर मंदिर में जा सकते हैं।

दामोदर और भैरवी नदी का संगम स्थल भी अत्यंत मनोहारी है। भैरवी नदी स्त्री नदी मानी जाती है जबकि दामोदर पुरुष। संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है। कहा जाता है कि जहां भैरवी नदी दामोदर में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है।



मां छिन्नमस्तिके की महिमा की पौराणिक कथाएं!!!!!!!

प्राचीनकाल में छोटा नागपुर में रज नामक एक राजा राज करते थे। राजा की पत्नी का नाम रूपमा था। इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा, जो बाद में रजरप्पा हो गया।

एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे। रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक कन्या देखी।

उसने राजा से कहा- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी।

राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा भयभीत हो उठे।

राजा को देखकर देख वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं। कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी।

देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं। इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवती भवानी अपनी सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा।

बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से 3 धाराएं निकलीं। वह 2 धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं। तभी से ये छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं।

रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। तीर्थस्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है।

आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहां स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं। अब यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है।

🚩कैसे पहुंचें?🚩

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिके मंदिर के निकट ठहरने के लिए उत्तम व्यवस्था है। मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क है। यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है। सुबह से शाम तक मंदिर पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रैकर उपलब्ध हैं।



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(धार्मिक प्रसारण)

Tuesday, July 11, 2017

Savan Ka Mahtav सावन का महत्व


#सावन #का #महत्व



सावन शुरू होते ही हर तरफ बम भोले और शिव का जयघोष गूंजने लगता है। लोग कांवड़ में पवित्र नदियों से जल भरकर भोले का अभिषेक करते हैं। शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन संसार का पालन पोषण करने वाले भगवान विष्णु चार महीने के लिए सोने चले जाते हैं। इस दौरान संसार के पालन की जिम्मेदारी शिव उठाते हैं अतः इस अवधि में शिव जी अपने संहारक रूप को छोड़कर सौम्य रूप में आ जाते हैं और भक्तों पर कृपा बरसाते हैं। इस मास में शिव की पूजा करने से वर्ष भर शिव की पूजा का फल प्राप्त होता है।

भगवान शिव के जलाभिषेक के लिए सावन के सोमवार का विशेष महत्व होता है | मान्यता है कि सावन के सभी सोमवार को शिव की पूजा करने पर मनोकामना पूरी होती है | सावन के पूरे महीने भक्त कांवर लेकर आते हैं और शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं | कहते हैं सावन मास में हरिद्वार से गंगाजल लाकर अगर शिवलिंग का जलाभिषेक किया जाए तो इससे प्रसन्न होकर शंकर भगवान अपने सेवक की हर इच्छा पूरी कर देते हैं।

सावन महीने के पहले दिन उज्जैन के बाबा महाकाल मंदिर, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में सुबह से ही श्रद्दालुओं का तांता लगा रहा | यहां दूर-दूर से श्रद्धालु सावन के महीने में दर्शन करने आते हैं |



क्यों किया जाता है शिव पूजन ?

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से विष निकला था | इस विष को पीने के लिए शिव भगवान आगे आए और उन्होंने विषपान कर लिया | जिस माह में शिवजी ने विष पिया था वह सावन का माह था | विष पीने के बाद शिवजी के तन में ताप बढ़ गया | शीतलता पाने के लिए भोलेनाथ ने चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण किया | इससे उन्हें शीतलता मिल गई | ऎसी मान्यता भी है कि शिवजी के विषपान से उत्पन्न ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इन्द्र ने भी बहुत वर्षा की थी | इससे भगवान शिव को बहुत शांति मिली | इसी घटना के बाद सावन का महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है | सारा सावन, विशेष रुप से सोमवार को, भगवान शिव को जल अर्पित किया जाता है |

सावन माह की विशेषता

हिन्दु धर्म के अनुसार सावन के पूरे माह में भगवान शंकर का पूजन किया जाता है | इस माह को भोलेनाथ का माह माना जाता है | भगवान शिव का माह मानने के पीछे एक पौराणिक कथा है | इस कथा के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया था | अपने शरीर का त्याग करने से पूर्व देवी ने महादेव को हर जन्म में पति के रुप में पाने का प्रण किया था |

अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमालय और रानी मैना के घर में जन्म लिया | इस जन्म में देवी पार्वती ने युवावस्था में सावन के माह में निराहार रहकर कठोर व्रत किया | यह व्रत उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किए | भगवान शिव पार्वती से प्रसन्न हुए और बाद में यह व्रत सावन के माह में विशेष रुप से रखे जाने लगे |



जानें व्रत व पूजा विधि—

हिन्दू धर्म में व्रत परंपरा और देव स्मरण मानव को प्रकृति के नियम और व्यवस्थाओं से जोड़कर जीवन को सुखी और स्वस्थ्य रखने का बेहतरीन उपाय माने गए हैं। यही कारण है हर माह, तिथि व वार अनेक देवी-देवता की पूजा-उपासना को समर्पित हैं। इसी कड़ी में सावन माह व सोमवार का दिन भगवान शिव की पूजा-आराधना का विशेष काल है। सावन मास को श्रावण भी कहते हैं, जिसका अर्थ है सुनना। इसलिए यह भी कहा जाता है इस महीने में सत्संग, प्रवचन व धर्मोपदेश सुनने से विशेष फल मिलता है।

सोमवार व्रत विधि –

सोमवार व्रत में भगवान भगवान शंकर के साथ माता पार्वती और श्री गणेश की भी पूजा की जाती है। व्रती यथाशक्ति पंचोपचार या षोडशोपचार विधि-विधान और पूजन सामग्री से पूजा कर सकता है। व्रत स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं। शास्त्रों के मुताबिक सोमवार व्रत की अवधि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक है। सोमवार व्रत में उपवास रखना श्रेष्ठ माना जाता है, किंतु उपवास न करने की स्थिति में व्रती के लिए सूर्यास्त के बाद शिव पूजा के बाद एक बार भोजन करने का विधान है। सोमवार व्रत एक भुक्त और रात्रि भोजन के कारण नक्तव्रत भी कहलाता है।

सावन के पहले सोमवार की पूजा विधि –

सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ ही भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।

प्रात: और सांयकाल स्नान के बाद शिव के साथ माता पार्वती, गणेश जी, कार्तिकेय और नंदी जी पूजा करें। चतुर्थी तिथि होने से श्री गणेश की भी विशेष पूजा करें।

पूजा में मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर रखें। पूजा के दौरान शिव के पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय और गणेश मंत्र जैसे ॐ गं गणपतये बोलकर भी पूजा सामग्री अर्पित कर सकते हैं।

पूजा में शिव परिवार को पंचामृत यानी दूध, दही, शहद, शक्कर, घी व जलधारा से स्नान कराकर, गंध, चंदन, फूल, रोली, वस्त्र अर्पित करें। शिव को सफेद फूल, बिल्वपत्र, सफेद वस्त्र और श्री गणेश को सिंदूर, दूर्वा, गुड़ व पीले वस्त्र चढ़ाएं।

बेलपत्र, भांग-धतूरा भी शिव पूजा में चढ़ाएं। शिव को सफेद रंगे के पकवानों और गणेश को मोदक यानी लड्डूओं का भोग लगाएं।

भगवान शिव व गणेश के जिन स्त्रोतों, मंत्र और स्तुति की जानकारी हो, उसका पाठ करें।

श्री गणेश व शिव की आरती सुगंधित धूप, घी के पांच बत्तियों के दीप और कर्पूर से करें।

अंत में गणेश और शिव से घर-परिवार की सुख-समृद्धि की कामनाएं करें।

सावन के पहले सोमवार को शिव पूजा में भगवान शिव को कच्चे चावल चढ़ाने का विशेष महत्व है।




ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

Friday, November 4, 2016

भैया दूज , भाई दूज कैसे मनाएं



गोवर्धन पूजा के अगले दिन भाई दूज या यम दीतिया मनाई जाती है ।

इस दिन प्रत्येक पुरुष को अपनी छोटी बहिन के घर भोजन करना चाहिए , अगर छोटी बहन न हो तो बड़ी या रिश्ते की किसी भी बहन के यहाँ भोजन करना चाहिए , इस दिन प्रत्येक व्यक्ति यदि विवाहित है तो अपनी पत्नी सहित अपने बहन के यहाँ जाये प्रेम से भोजन करें उसके बाद यथाशक्ति अपनी बहन को भेंट दें और तिलक कराएँ तो उसके सौभाग्य में वृद्धि होती है ।इस दिन सभी बहनों को अपने भाइयों को तिलक लगाकर उनके दीर्घायु की कामना करनी चाहिए ।

इस दिन के लिए स्वयं यमराज ने कहा है की जो व्यक्ति आज के दिन यमुना में स्नान करके बहन के घर उसका पूर्ण श्रद्धा से पूजन करके अपने तिलक करवाएंगे अपनी बहन को पूर्णतया संतुष्ट करेंगे उसके हाथ से बनाया भोजन प्रेम पूर्वक करेंगे वे कभी भी अकाल म्रत्यु को प्राप्त करके मेरे दरवाजे को नहीं देखेंगे । यमराज जी कहते है की इस दिन किसी भी पुरुष को अपने घर में किसी भी दशा में भोजन नहीं करना चाहिए । श्री सूर्य भगवान ने तो यहाँ तक कहा है की जो मनुष्य यम दीतिया के दिन बहन के हाथ का भोजन नहीं करता है उसके साल भर के सभी पुण्य नष्ट हो जाते है ।

आविवाहित बहन के होने पर उसी बहन के हाथों का ही बना भोजन करना चाहिए ।

सनतकुमार संहिता में कहा गया है की जो स्त्री कार्तिक शुक्ल पक्ष की दीतिया को अपने भाई को आदरपूर्वक बुलाकर सुरुचि पूर्वक भोजन कराती है तथा भोजन के बाद उसे पान खिलाती है वह सदा सुहागन रहती है , साथ ही ऐसी बहन के भाई को भी दीर्घ आयु की प्रप्ति होती है .इस लिए इस दिन बहन के हाथों से पान जरुर खान चाहिए ।

लिंग पूरण में वर्णित है की जो कन्या / स्त्री इस दिन अपने भाई का पूजन करके उसको तिलक नहीं लगाती है उसका सम्मान नहीं करती है वह सात जन्म तक बिना भाई के ही रहती है ।

Kalash One Image भईया दूज के शुभ मुहूर्त 2016Kalash One Image


दिन की चर की चौघड़िया -----प्रात: काल 09.00 से 10.30 तक
दिन की लाभ चौघड़िया ----- प्रात: काल 10.30 से 12.00 तक
दिन की अमृत चौघड़िया ---- मध्यान 12.00 PM To 1.30 तक
अत बहने अपने भाइयो को 09.00 से लेकर 1.30 बजे तक शुभ चौघड़िया के अनुसार भी टीका लगा सकती है |

इसी तरह 1 नवम्बर मंगलवार को भईया दूज में भाइयों को तिलक करने का शुभ मुहूर्त भाई दूज टीका मुहूर्त =13.15 से 15.26 तक अवधि = 2 घण्टे 11 मिनट्स अत: इस समय बहनो को अपने भाईयों को तिलक करना चाहिए ।

इस दिन राहु काल (अशुभ समय) दिन -3:00 से 4:30 तक है अतः राहु काल में बहनो को भाइयो को टीका बिलकुल भी नही लगना चाहिए

Kalash One Image भाई दूज में रखे ध्यान Kalash One Image




Kalash One Image भाई दूज के दिन भाइयों को अपनी बहनो के यहाँ जाकर टीका लगवाना चाहिए।

Kalash One Image भाई दूज के दिन भाइयों को अपनी बहनो के घर में ही भोजन करना चाहिए अपने घर में नहीं ।

Kalash One Image भाई दूज भाई - बहन के स्नेह का, सौभाग्य का पवित्र पर्व है अत: इस दिन शुभ मुहूर्त का अवश्य ही ध्यान दें , टीका सदैव शुभ मुहूर्त में ही टीका लगवाना चाहिए।

Kalash One Image बहने अपने भाइयों को टीका लगाते हुए यह ध्यान रखे कि भाइयों का मुखँ पूर्व दिशा की ओर हो , टीका लगाते हुए भाई एवं बहन दोनों को ही अपने सर पर कोई भी कपड़ा अवश्य ही रखना चाहिए अर्थात दोनों का सर ढंका होना चाहिए ।

Kalash One Image बहने अपने भाइयों को टीका लगाने के लिए एक थाली तैयार करें उसमें रोली, अखण्डित अक्षत( चावल ), मिष्ठान, नारियल, और पान रखा हो। ( बहुत स्थानों पर बहने अपने भाइयों का तिलक करने के बाद उनकी आरती भी उतारती है।)

Kalash One Image मस्तक पर टीका लाल रोली का लगाएं तथा उसके बाद अक्षत या खीलें भी अवश्य ही लगाएं ।

Kalash One Image भाई दूज के दिन बहनो को चाहिए कि वह अपने भाइयो को टीका लगाने के बाद उनका मुहँ मीठा करवाकर भोजन के बाद उन्हें अपने हाथो से पान भी अवश्य ही खिलाएं, इससे भाइयों का सौभाग्य बढ़ता है उन्हें धन, यश की प्राप्ति होती है ।

Kalash One Image इस दिन भाइयों को चाहिए कि वह अपनी बहनो को अपनी समर्थ के अनुसार उपहार अवश्य ही दें इससे कार्यों में अड़चने नहीं आती है धन लाभ का मार्ग प्रशस्त होता है ।

Kalash One Image इस दिन भाइयों को अपनी बहनो को संतुष्ट करके अपने सिर एवं पीठ पर उनका हाथ फिरवा के आशीर्वाद अवश्य ही लेना चाहिए, इससे भाइयों के पास कोई भी संकट उन्हें छू भी नहीं पाता है ।



तो यह थे दीवाली के पाँच दिनों का महत्व । माना जाता है की इन पांचो पर्वों को उपर्युक्त विधि से पूर्ण श्रद्धा एवं उल्लास से माने से व्यक्ति की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है । दोस्तों हमने बहुत ही सरल और सूक्ष्म तरीके से इनका महत्व बताने की कोशिश की है और इनमे किसी भी प्रकार के अतिरिक्त व्यय की आवश्यकता नहीं है बस आप को पूर्ण विश्वास से इनका यथासंभव पालन करना होगा ।

हमें पूर्ण विश्वास है की विघ्न विनाशक गणपति गणेश और माँ लक्ष्मी की कृपा आप पर अवश्य ही होगी , हमारी ईश्वर से प्रार्थना है की आपकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति हो ।


Tuesday, July 14, 2015

होली : रंगों का त्योहार (Holi - Basanta Utsav)

होली का त्योहार रंगों का त्योहार है। इस दिन लोग एक दूसरे पर रंग फेंकते हैं और गुलाल लगाते हैं।

होली का महत्त्व - होली के साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। हिरण्यकश्यप एक राक्षस राजा था। उनके पुत्र प्रहलाद विष्णु भक्त निकला। बार बार बोलने पर भी प्रह्लाद विष्णु गन जाता थ। हिरण्य कश्यम क्रोधित हुआ एंड कई तरह उनको सजा दिय। लेकिन प्रह्लाद को भगवान की रक्षा से कुछ भी तकलीफ नहीं हुअ। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मार डालने के लिए एनपी बहन होलिका को नियुक्त किया था ! होलिका के पास एक ऐसी चादर थी , जिसे ओढ़ने पर व्यक्ति आग के प्रभाव से बच सकता था ! होलिका ने उस चादर को ओढ़कर प्रहलाद को गोद में ले लिया और अग्नि में कूद पड़ी ! वहाँ दैवीय चमत्कार हुआ ! चादर प्रह्लाद के ऊपर गिर पडी। होलिका आग में जलकर भस्म हो गई , परंतु विष्णुभक्त प्रहलाद का बाल भी बाँका न हुआ ! भक्त की विजय हुई और राक्षस की पराजय ! उस दिन सत्य ने असत्य पर विजय घोषित कर दी ! तब से लेकर आज तक होलिका-दहन की स्मृति में होली का मस्त पर्व मनाया जाता है !

मनाने की विधि - होली का उत्सव दो प्रकार से मनाया जाता है ! कुछ लोग रात्रि में लकड़ियाँ , झाड़-झंखाड़ एकत्र कर उसमे आग लगा देते हैं और समूह में होकर गीत गाते हैं ! आग जलाने की यह प्रथा होलिका-दहन की याद दिलाती है ! ये लोग रात में आतिशबाजी आदि चलाकर भी अपनी खुशी प्रकट करते हैं ! होली मनाने की दूसरी प्रथा आज सारे समाज में प्रचलित है ! होली वाले दिन लोग प्रातः काल से दोपहर 12 बजे तक अपने हाथों में लाल , हरे , पीले रंगों का गुलाल हुए परस्पर प्रेमभाव से गले मिलते हैं ! इस दिन किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा जाता ! किसी अपरिचित को भी गुलाल मलकर अपने ह्रदय के नजदीक लाया जाता है !

नृत्य-गान का वातावरण - होली वाले दिन गली -मुहल्लों में ढोल-मजीरे बजते सुनाई देते हैं ! इस दिन लोग लोग समूह-मंडलियों में मस्त होकर नाचते-गाते हैं ! दोपहर तक सर्वत्र मस्ती छाई रहती है ! कोई नीले-पीले वस्त्र लिए घूमता है , तो कोई जोकर की मुद्रा में मस्त है ! बच्चे पानी के रंगों में एक-दुसरे को नहलाने का आनंद लेते हैं ! गुब्बारों में रंगीन पानी भरकर लोगों पर गुब्बारें फेंकना भी बच्चों का प्रिय खेल हो जा रहा है ! बच्चे पिचकारियों से भी रंगों की वर्षा करते दिखाई देते हैं ! परिवारों में इस दिन लड़के-लडकियाँ , बच्चे-बूढ़े , तरुण-तरुनियाँ सभी मस्त होते हैं ! अतः इससे मस्त उत्सव ढूँढना कठिन है और इसलिए यह मेरा प्रिय त्योहार है !

प्राचीन शब्दरूप इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। जैमिनि का कथन है कि 'होलाका' सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है- 'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका देवता है। एक दूसरा टिका के अनुसार 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है।' वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी' है।
होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है।

होलिका हेमाद्रि ने भविष्योत्तर से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। तब पुरोहित ने मुहूर्त निकला और कहां फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब करवाया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'

Holi, also known as the "Festival of Colors," is a popular Hindu festival celebrated in India and other parts of the world. The festival is celebrated on the full moon day in the Hindu month of Phalguna, which falls in February or March of the Gregorian calendar.

The festival of Holi signifies the victory of good over evil, the arrival of spring, and the end of winter. The festival is celebrated with great enthusiasm and energy, and people of all ages, gender, and caste participate in the celebrations.

The Legend of Holi:

The festival of Holi has many legends associated with it, but the most popular one is the story of Prahlad and Hiranyakashipu. According to the legend, there was a demon king named Hiranyakashipu who wanted to kill his son Prahlad, who was a devotee of Lord Vishnu.

Despite his father's orders, Prahlad continued to worship Lord Vishnu. Hiranyakashipu's sister Holika had a boon that she could not be burned by fire, and so she decided to help her brother by taking Prahlad into a bonfire.

However, the fire burned Holika instead, and Prahlad was saved by Lord Vishnu's divine intervention. The festival of Holi celebrates the victory of good over evil and the end of the darkness.

The Celebration of Holi:

The celebrations of Holi usually begin on the night before the main festival day with a Holika Dahan, which is a ritual where people gather around a bonfire and offer prayers to Lord Vishnu. The bonfire represents the burning of Holika, the demon king's sister, who tried to harm Prahlad.

On the main day of the festival, people gather to play with colors and throw colored powder and water at each other. The festival is also celebrated with delicious food, sweets, and music.

In some parts of India, people also dress up in traditional clothes and perform cultural dances and songs. The festival of Holi is a time of joy, happiness, and unity, and it brings people of all communities and castes together.

The Significance of Holi:

The festival of Holi has both religious and cultural significance. From a religious perspective, Holi is associated with various Hindu mythologies, and it celebrates the victory of good over evil.

The festival is also associated with Lord Krishna, who is known for playing Holi with his friends and Radha, his beloved. The story of Krishna and Radha's playful color games is an integral part of Holi celebrations.

From a cultural perspective, Holi is a celebration of spring and the end of winter. The festival is an opportunity for people to come together and celebrate life, happiness, and love. The colors used during the festival represent the colors of spring and the vibrant and colorful nature of life.

In recent years, the festival of Holi has become a symbol of India's cultural identity, and it has been celebrated around the world by people of all cultures and backgrounds.

Conclusion:

The festival of Holi is a celebration of joy, happiness, and unity. It is a time for people to forget their differences and come together to celebrate life and love. The festival signifies the victory of good over evil, the end of winter, and the arrival of spring.

The festival of Holi has a religious and cultural significance, and it has been celebrated in India for centuries

Thursday, January 8, 2015

Sakat Chauth

Sakat Chauth

Sakat Chauth Vrat is observed on the fourth day of Krishna paksha, (the fading phase of moon) in the month of Magha according to Hindu lunar calendar. 

Sakat Chauth is also called Ganesh Chauth or Tilkuta Chauth. Lord Ganesha and the Moon God are worshiped on Sakat Chauth. This vrat is mainly observed in North India and this day is celebrated as Tilkut Chauth.

A full day fast is observed on this day. It is believed that fasting on Sakat Chauth removes all obstacles from life and Ganesha blesses his devotees with health, fortune and good children.

Sakat Chauth Vrat Method

On this day, married women who are observing the fast wake up early and take a bath, after which they wear new clothes, clean up the place of worship and chant “Om Ganeshaaya Namah" mantra108 times. During the day devotees observe a fast. However milk, tea and fruits are allowed.

In the evening a Mandap is decorated in which Ganesha idol is placed. The idol is decorated with flowers and Doorva (grass) and desserts prepared with sesame seeds (til) and jaggery are offered to Ganesha. These special sweets are called “Naivaidya”. At the end of this puja, the Ganesha arti is sung.Some people keep the Prasad of this puja in front of the Ganesha idol for all night and share it with family members next morning.

The Moon god is also worshiped on this day. At night, after the moonrise, Arghya is given to the moon and after hearing the Sakat Chauth katha, the fast is broken. If the moon is not visible due to rain and clouds, the puja is performed according to the moon rise time.

Tilkut is a traditional Indian sweet made with sesame seeds and jaggery. After offering some tilkut and modak to Ganesha, devotees distribute it as prasad (holy offering) to their friends and family members.

Married women pray for health, wealth and well-being of their children. Fasting on Sakat Chauth is considered very auspicious .Mothers observe fast on this day so the hurdles from the life of their kids are removed.

Significance of Tilkut on Sakat Chauth

Sesame seeds are a great source of many valuable elements such as protein, calcium, phosphorous and magnesium. The black sesame seeds are very beneficial as well and jaggery is a great source of iron and calcium .The mixture of both produce body heat, increase our immunity and prevents us from the bad effects of the cold climate.

Similarly Doorva (grass) is also considered good for detoxification of body. A healthy mind resides in a healthy body.  With a healthy mind one can overcome all the hurdles and obstacles in life. This is the real meaning of offering Tilkut and Doorva to Lord Ganesha.

Legend of Sakat Chauth

According to the belief, there was a family in which 2 brothers and their wives lived together. The elder one was rich and younger one was poor. Elder brother’s wife was greedy and very cruel, but the wife of the younger brother was a devotee of Ganesha .On the day of Sakat Chauth, she performed puja but she had nothing to offer to Ganesha, so she asked the elder brother’s wife for some food, but that cruel lady insulted her and didn’t give her anything. The younger wife was very sad and tired so she went to sleep. 

At night Lord Ganesha visited her home and blessed her with a lot of gold and diamond jewellery. When the greedy wife of the rich brother saw this, she also repeated the same procedure and invited Ganesha. But the angry Ganesha did not please and cursed her lot. The greedy lady realized her mistake, she could gain good fortune only after  worshiping Ganesha with full devotion on Sakat Chauth.

Ever since then people started worshiping Lord Ganesha on Sakat Chauth to get blessings from him.

श्री गणेश संकट चौथ व्रत | Ganesh Sankat Chauth Vrat | Ganesh Sankat Chauth Festival


श्री गणेश चतुर्थी के दिन श्री विध्नहर्ता की पूजा- अर्चना और व्रत करने से व्यक्ति के समस्त संकट दूर होते है. माघ माह के कृष्ण पक्ष चतुर्थी के दिन को संकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है. इस तिथि समय रात्री को चंद्र उदय होने के पश्च्यात चंद्र उदित होने के बाद भोजन करे तो अति उत्तम रहता है. तथा रात में चन्द्र को अर्ध्य देते हैं.
हिन्दू धर्म शास्त्रों में के अनुसार भगवान श्री गणेश कई रुपों में अवतार लेकर प्राणीजनों के दुखों को दूर करते हैं. श्री गणेश मंगलमूर्ति है, सभी देवों में सबसे पहले श्री गणेश का पूजन किया जाता है. श्री गणेश क्योकि शुभता के प्रतीक है. पंचतत्वों में श्री गणेश को जल का स्थान दिया गया है. बिना गणेश का पूजन किए बिना कोई भी इच्छा पूरी नहीं होती है. विनायक भगवान का ही एक नाम अष्टविनायक भी है.
इनका पूजन व दर्शन का विशेष महत्व है.  इनके अस्त्रों में अंकुश एवं पाश है, चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं, उनका लंबोदर रूप "समस्त सृष्टि उनके उदर में विचरती है" का भाव है बड़े-बडे़ कान अधिक ग्राह्यशक्ति का तथा आँखें सूक्ष्म तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं, उनकी लंबी सूंड महाबुद्धित्व का प्रतीक है.

गणेश संकट चौथ व्रत का महत्व | Importance of Ganesha Sankat Chauth Fast

श्री गणेश चतुर्थी का उपवास जो भी भक्त संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ करता है, उसकी बुद्धि और ऋषि-सिद्धि की प्राप्ति होने के साथ-साथ जीवन में आने वाली विध्न बाधाओं का भी नाश होता है. सभी तिथियों में चतुर्थी तिथि श्री गणेश को सबसे अधिक प्रिय होती है.

श्री गणेश संकट चतुर्थी पूजन | Sri Ganesha Sankat Chaturthi Worship

संतान की कुशलता की कामना व लंबी आयु हेतु भगवान गणेश और माता पार्वती की विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए, व्रत का आरंभ तारों की छांव में करना चाहिए व्रतधारी को पूरा दिन अन्न, जल ग्रहण किए बिना मंदिरों में पूजा अर्चना करनी चाहिए और बच्चों की दीर्घायु के लिए कामना करनी चाहिए. इसके बाद संध्या समय पूजा की तैयारी के लिए गुड़, तिल, गन्ने और मूली को उपयोग करना चाहिए. व्रत में यह सामग्री विशेष महत्व रखती है, देर शाम चंद्रोदय के समय व्रतधारी को तिल, गुड़ आदि का अ‌र्घ्य देकर भगवान चंद्र देव से व्रत की सफलता की कामना करनी चाहिए.
माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत लोक प्रचलित भाषा में इसे सकट चौथ कहा जाता है. इस दिन संकट हरण गणेशजी तथा चंद्रमा का पूजन किया जाता है, यह व्रत संकटों तथा दुखों को दूर करने वाला तथा सभी इच्छाएं व मनोकामनाएं पूरी करने वाला है. इस दिन स्त्रियां निर्जल व्रत करती हैं गणेशजी की पूजा की जाती है और कथा सुनने के बाद चंद्रमा को अर्ध्य देकर ही व्रत खोला जाता है.

holi basanta utsav

Monday, September 9, 2013

Ganesh Chaturthi

Ganesha Chaturthi is the Hindu festival celebrated on the birthday (rebirth) of Lord Ganesha, the son of Shiva and Parvati.
It is believed that Lord Ganesh bestows his presence on earth for all his devotees during this festival. It is the day when Ganesha was born. Ganesha is widely worshipped as the god of wisdom, prosperity and good fortune and traditionally invoked at the beginning of any new venture or at the start of travel. The festival, also known as Vinayaka Chaturthi ("festival of Ganesha") is observed in the Hindu calendar month of Bhaadrapada, starting on the shukla chaturthi (fourth day of the waxing moon period). The date usually falls between 19 August and 20 September. The festival lasts for 10 days, ending on Anant Chaturdashi (fourteenth day of the waxing moon period).
While celebrated all over India, it is most elaborate in Maharashtra, Gujarat, Tamil Nadu, Goa, Andhra Pradesh, Karnataka, Odisha and Chhattisgarh. Outside India, it is celebrated widely in Nepal and by Hindus in the United States, Canada, Mauritius, Singapore, Malaysia, Thailand, Cambodia, Burma, Fiji, Trinidad & Tobago, and Guyana.

Legend

Traditional Ganesha Hindu stories tell that Lord Ganesha was created by goddess Parvati consort of Lord Shiva. Pravati created Ganesha out of sandalwood paste that she used for her bath and breathed life into the figure. She then set him to stand guard at her door while she bathed. Lord Shiva, who had gone out, returned and as Ganesha didn't know him , didn't allow him to enter. Lord Shiva became enraged by this and asked his follower Ganas to teach the child some manners. Ganesha who was very powerful, being born of Parvati, the embodiment of Shakti. He defeated Shiva's followers and declared that nobody was allowed to enter while his mother was bathing. The sage of heavens , Narada along with the Saptarishis sensed the growing turmoil and went to appease the boy with no results. Angered, the king of Gods, Indra attacked the boy with his entire heavenly army but even they didn't stand a chance. By then, this issue had become a matter of pride for Parvati and Shiva. Angry Shiva severed the head of the child. Parvati seeing this became enraged. Seeing parvati in anger Shiva promised that her son will be alive again. The devas searched for the head of dead person facing North. But they found only the head of a dead elephant. They brought the head of the elephant and Shiva fixed it on the child's body and brought him back to life. Lord Shiva also declared that from this day the boy would be called Ganesha (Gana Isha : Lord of Ganas).
According to the Linga Purana, Ganesha was created by Lord Shiva and Goddess Parvati at the request of the Devas for being a Vighnakartaa (obstacle-creator) in the path of Rakshasas, and a Vighnahartaa (obstacle-averter) to help the Devas achieve fruits of their hard work.



Wednesday, August 21, 2013

Raksh Bandhan